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श्रीयंत्र यंत्रराज क्यों ?

एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार लक्ष्मीजी पृथ्वी से रुष्ट होकर वैकुण्ठ चली गईं|लक्ष्मी की अनुपस्थिति में पृथ्वी पर अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गईं|महर्षि वशिष्ठ और श्री विष्णु के बहुत मनाने पर भी लक्ष्मी नहीं मानी|तब देव गुरु बृहस्पति ने लक्ष्मी को आकर्षित करने के लिए ‘श्रीयंत्र’स्थापना एंव पूजन का उपाय बताया|लक्ष्मी को न चाहते हुए भी विवश होकर पृथ्वी पर लौटना पड़ा|उन्होंने कहा-‘’श्रीयंत्र ही मेरा आधार है तथा इसमें मेरी आत्मा निवास करती है|इसलिए मुझे आना ही पड़ा|’’

श्रीयंत्र भगवती त्रिपुर सुंदरी का है|सभी यंत्रों में इसे सर्वश्रेष्ठ कहा गया है| ‘योगिनी ह्रदय’में इस यंत्र का महात्म्य वर्णित है|पराशक्ति अपने संकल्प मात्र से विश्व में समाहित होकर स्वयं अपने रुपलावण्य का आनंद लेती है|इस अपरिमेय आनंद के साथ श्रीचक्र का प्राकट्य होता है|

‘भैरवाय मल’में कहा गया है-चक्रं त्रिपुर सुन्दर्या ब्रम्हांडाकारमिश्वरी| अर्थात हे इश्वरी!त्रिपुर संदुरी चक्र का आकार ब्रम्हांड के समान है|

‘भावनोपानिषद’में कहा गया है कि नवचक्रमायी देह अर्थात् इस देह में नवचक्र है|श्रीयंत्र में ‘श्री’शब्द का अर्थ बताया गया है कि जो सुना जाए,वह ‘श्री’है|श्रूयते या सा श्री-जो नित्य परब्रम्हा का आश्रवण करती हैं,वह ‘श्री’है|

शिवशक्ति की एकरूपता आगम ग्रंथों में प्रतिपादित की गई है,जैसे-न शिवेन विना देवी,न देव्या विना शिवः|नान्योरंतरः किन्चिद्चंद्रान्द्रिकयोरिव||शिव के बिना देवी नहीं और देवी के बिना शिव नहीं|इन दोनों में चंद्रमा एंव उसकी चन्द्रिका के समान किंचित् भी भेद नहीं है|

ब्रम्ह की उत्पत्ति,स्थिति और पालन की सामर्थ्य प्राप्त करने का श्रेय ‘श्री’के कारण ही है|शंकराचार्य जी के अनुसार-शिवः शक्त्या युतो तादभवति शक्तः प्रभविन्तु|न चेदेदं देवो न खलूं कुथल:स्पन्दितुमपि|तात्पर्य यह है कि जो शिव,शक्ति के सहित होता है,वो ही सामर्थ्य वाला होता है|जो इससे युक्त नहीं होता,वह देव तो स्पंदन करने योग्य ही नहीं है|

ब्रम्हा स्वयं निष्कल,निरंजन और निर्गुण है|शैव आगम में उल्लेख है कि-अचिंत्यमिताकार शक्ति स्वरूपा प्रति व्यक्त्यधिष्ठान सत्यैक मूर्तिः गुणातीत निर्द्वन्द्व बोधैक गम्य त्वमेका परब्रम्हारुपेण सिद्धाः|तात्पर्य यह है कि चिंतन करने से परे,अमित आकार एंव शक्ति स्वरुप,प्रति व्यक्ति में अधिष्ठित सत्ता मूर्ति,गुणों से अलग निर्द्वन्द्व बोध ही केवल जानने के योग्य आप एक पर्ब्रम्हास्वरूप सिद्ध हैं|

श्रीयंत्र के चित्रित स्वरुप में कई वृत हैं|सबसे अन्दर वाले केंद्र में बिंदु स्थित है|इस बिंदु के चतुर्दिक नौ त्रिकोण बनाए गए हैं|इनमे से पांच की नोक ऊपर और चार त्रिकोण की नाक निचे की ओर है|उन्हें भगवती का प्रतिनिधि माना जाता है तथा उन्हें शिव युवती की संज्ञा दी गई है|निचे की नोक वाले त्रिकोणों को शिव का प्रतिनिधि मानकर उन्हें श्रीकंठा कहा गया है|

उर्ध्वमुखी पंच त्रिकोण पांच प्राण,पांच ज्ञानेन्द्रियों,पांच तन्मात्राओं और पांच महाभूतों के प्रतिक हैं|शरीर में यह अस्थि,मेदा,मांस,अव्रक और त्वक के रूप में विद्यमान हैं|अधोमुखी चार त्रिकोण शरीर में जीव,प्राण,शुक्र और मज्जा के द्योतक हैं|ब्रम्हांड में मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार के प्रतिक हैं|पांच उर्ध्वमुखी और चार अधोमुखी त्रिकोण नौ मूल प्राक्रतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं|इस प्रकार यंत्र में एक आठ दल वाला,दूसरा सोलह दल वाला कमल है|पहला अन्दर वाले वृत्त के बाहर और दूसरा दुसरे वृत्त के बाहर है| ‘आनंद लहरी’में भगवान शंकराचार्य ने इस प्रकार लिखा है-

चतुर्भिः श्रीकंठो शिवः युवतिभिः पंचभिरभि:|प्रभिन्नाभी:शम्भोर्नव निरपी मूल प्रकृतिभि:||त्रयश्चात्वारी हृद्बसुदलकलाब्ज त्रिवलयत्रिरेखाभिः सार्ध: तव भवन कोण: परिणता:||अर्थात्-श्रीयंत्र की रचना के अनुसार चार श्रीकंठो के,पांच शिव की युवतियों के,शंभू की नौ अभिन्न मूल प्रवृत्तियों के,तैंतालीस वसुदल कलाब्ज की त्रिवलय,तीन रेखाओं के साथ आपके(त्रिपुर सुंदरी)भवन-कोण में परिणत होते हैं|

एक अन्य कथा में श्रीयंत्र का संबध आद्यशंकराचार्य से जोड़ा गया है|अद्वेतवादी सन्यासियों में ‘श्रीविद्या’की आज भी प्रतिष्ठा है|जब शंकराचार्य ने शिवजी से विश्व कल्याण का उपाय पूछा तो उन्होंने श्रीयंत्र और श्रीविद्या प्रदान करते हुए कहा की श्रीविद्या की साधना जानने वाला मनुष्य अपार यश और लक्ष्मी का स्वामी होगा,जबकि श्रीयंत्र का पूजन करने वाला प्रत्येक प्राणी सभी देवताओं की आराधना का फल प्राप्त करेगा,क्योंकि इस यंत्रराज में सभी देवी-देवताओं का वास है|

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