उपवास का व्यावहारिक अर्थ है – अन्न ग्रहण न करना या उपवास के पदार्थ खाना|उपवास में आलस्य,निद्रा,एंव पित्त विकार आदि का उद्भव न हो;इसलिए कम अन्न भक्षण करना आवश्यक रहता है|इसके लिए धर्म शास्त्र ने हविष्य पदार्थों की सूचि भी बनायीं है|उपवास अच्छी तरह हो,ऐसी इच्छा होने पर दिन भर कुछ न खाकर केवल पानी पीने चाहिए|इससे पेट के सभी अवयवों को पर्याप्त विश्राम मिलने से शरीर कार्यक्षम बनता है|परन्तु यदि कुछ कारणों से जलोपवास मुमकिन न हो तो फलाहार करें|यदि यह भी संभव न हो तो आहार में परिवर्तन करके हविष्यान भक्षण करें|सभी विषयों में जलपान मुख्य तत्व है|
आजकल उपवास प्रतिनिधिक रूप में किये जाते है|साबूदाना,खिचड़ी या केले वगैरह खाकर उपवास किया जाता है|परन्तु उपवास के दिन कुछ समय ध्यान-धारण एंव जप आदि अवश्य करना चाहिए|उपवास के पहले दिन रात में भोजन न करें|यदि भोजन करना आवश्यक हो तो पहले प्रहर में अल्पाहार लें|इसकी दूसरी शास्त्रीय भूमिका यह है कि साप्ताहिक या पाक्षिक उपवास के लिए एकादशी अथवा प्रदोष आदि का चुनाव करें|साप्ताहिक उपवास के लिए कोई निश्चित वार,पाक्षिक उपवास के लिए तिथि,मासिक उपवास के लिए शिवरात्रि या संकष्टी इत्यादि तिथि,षाण्मासिक उपवास के लिए कर्क,एंव मकरसंक्रांति का पर्व काल तथा वार्षिक उपवास के लिए माहाशिवरात्रि एंव जन्माष्टमी के दिन ठीक रहते हैं|तद्निमित्त उपवास के दिन मन पर धार्मिक संस्कार होने के लिए ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करें|इससे काम-वासना नियंत्रित हो जाती है|
गृहस्थ व्यक्ति को एक से अधिक उपवास नहीं करने चाहिए|उसी तरह पाक्षिक या मासिक आदि उपवास एक से अधिक न करें|इसके पीछे पित्तांश न बढे,यही उद्देश्य रहता है|जवानी में खींच-तानकर किये गए उपवास से पित्त वृद्धि होती है|इसके फलस्वरूप बुढापे में विभिन्न प्रकार उत्पन्न होते हैं|धार्मिक आचरण न करते हुए मन के विरुद्ध लादे गए उपवास करते रहने से भी पित्त का प्रभाव बढ़ जाता है|शास्त्रोक्त पद्धति से किये गए उपवास में मन के विकार शांत होते हैं|शरीरांतर्गत वासना देह,मनोदेह,एंव कारणदेह इत्यादि में भी शुद्धि प्रस्थापित होकर वित्तियां स्थिर होती हैं|उपवास का महत्वपूर्ण सूत्र है – उपवास का रूपान्तर भुखमरी में न हो|देह धारण के लिए आवश्यक इंधन नित्य अन्न के माध्यम से मिलता है|वह ईंधन उपवास के दिन अन्न द्वारा न मिलने के कारण अन्य मार्गों से प्राप्त करना होता है|ऐसे वक्त शरीर में छिपे पुराने विकार कम हो जाते हैं|लेकिन उस ईंधन के लिए शरीरस्थ पेशियों का उपयोग किया जाता है|इसका परिणाम चित्त्प्रकोप एंव पित्तप्रकोप के रूप में होता है|
उपवास के पीछे एक अन्य शास्त्रीय कारण भी है|उपवास के दिन अन्न मार्ग आंते अन्दर की ओर इकट्ठी होने से मल शिथिल होकर बाहर निकलता है|उपवास के दिन पर्याप्त मात्रा में पानी पीने से यह कार्य अधिक उत्तम ढंग से होता है|नियमित रूप से उपवास करके जल चिकित्सा करने पर कोष्ठबद्धता,अग्निमांद्य तथा क्षुधानाश इत्यादि विकार पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं|उत्क्रांतिवाद के नियमों के अनुसार वासनादी देहों की शुद्धि होती रहने से पुनर्जन्म अधिक अच्छी अवस्था में होता है|तथा अंत में परमार्थ की प्राप्ति होती है|उम्र के 50वें साल से मनुष्य का शांतिकाल प्रारंभ होता है|50 साल की उम्र के बाद नवपेशी निर्माण की प्रक्रिया घटती जाती है|ऐसे समय गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थाश्रम शुरू होता है|यदि शास्त्रोक्त विधि से वानप्रस्थाश्रम लेना सुविधाजनक न हो तो उपवास की समाप्ति करके सिर्फ शुक्ल एकादशी का उपवास रखें|