नित्य मौन के विषय में धर्म शास्त्र कहता है – उत्सर्ग मिथुने चैव प्रस्त्रवे दन्तधावने|श्राद्धे भोजनकाले च षट्सू मौनं समाचरेत||अर्थात् मल-मूत्र श्लेष्मा,नाक-कान का मैल,पसीना और आँखों के चिपड़े की सफाई करते समय,मैथुन के अवसर पर,शरीर के घाव से रक्त बहने पर,दांत का मंजन करते हुए,श्राद्ध काल में तथा भोजन करते समय मौनाचरण करें|
मौन पालन के समय मुंह से न बोलना जितना आवश्यक है,उससे अधिक महत्वपूर्ण किसी भी व्यावहारिक बात का विचार न करना है|परमार्थ सिद्ध के लिए व्यावहारिक बातों का अस्पष्ट विचार भी मन में नहीं आना चाहिए|यही मौन पालन का सही अर्थ है|मौन पालन की समयावधि में साधना,चिंतन तथा मनन की अधिक से अधिक प्रमाण में आवश्यकता होती है|
कुछ लोग अष्टमी,एकादशी,पूर्णिमा,या अमावस्या में से एकाध दिन ही मासिक मौन पालन करते हैं|उसी तरह कुछ लोग पाक्षिक तो कुछ लोग किसी निश्चित दिन या सप्ताह में मौनाचरण करते हैं|यदि मौन पालन के दिन उपवास रखा जाए तो मौन अधिक परिणाम कारक होता है|कुछ साधक चातुर्मास अथवा एक या बारह वर्षों का मौन रखते हैं|मौन साधना प्राचीन तपश्चर्या का छोटा रूप है|मौन धारण करने वाले साधक के शरीर में दैवी शक्ति उत्पन्न होती है|उसकी इच्छा शक्ति एंव मनोबल जैसे-जैसे बढ़ता जाता है;वैसे-वैसे अल्प,लघु,क्षुद्र,या माहासिद्धि का लाभ प्राप्त होता है|सामान्य मौन से भी अनेक लाभ होते हैं|यदि व्यावहारिक समस्या खड़ी होने पर उपवास रखकर मौन पालन किया जाए तो मन के ‘अन्दर की आवाज़’सुनाई देती है तथा उचित दिशा में कदम बढ़ते हैं|इसके द्वारा उचित निर्णय लिया जा सकता है|मौन के वाचिक एंव वैचारिक – दो मुख्य प्रकार होते हैं|इनमे से वाचिक मौन का पाठ बचपन में ही सिखने को मिल जाता है|जब वाद-विवाद एंव मतभेद उत्पन्न होता है,उस समय क्रोध की सम्भावना रहती है|ऐसे में प्रासंगिक मौन का साहारा लेने पर अच्छा परिणाम निकलता है|नित्य मौन की समयावधि कई दिनों की होती है|मैमित्तिक मौन पालन के लिए विशिष्ट कालावधि का चुनाव करना होता है|अष्टमी,एकादशी,पूर्णिमा एंव अमावस्या – इन तिथियों का मौन पालन विशेष स्मरणीय रहता है|इसके आलावा पूजा,पंच महायज्ञ,जप तथा पुरश्चरण आदि धार्मिक प्रसंगों पर मौन पालन आवश्यक है|साथ ही साथ वैचारिक मौन के समय कोई भी विचार मन में नहीं आने देना चाहिए|वैचारिक मौन ही श्रेष्ठ मौन माना गया है|