‘कठोपनिषद’में तिलक धारण विधि के संदर्भ में नाड़ी का वर्णन इस तरह किया गया है-ह्रदय की नाड़ियों मे से सुषुम्ना नामक नाड़ी मस्तक के सामने वाले हिस्से से निकलती है|इस नाड़ी से उर्ध्वगतीय मोक्ष मार्ग निकलता है|अन्य सभी नाड़ियाँ प्राणोंत्क्रमण के बाद चारों दिशाओं में फ़ैल जाती है|मगर सुषुम्ना का मार्ग उर्ध्व दिशा की ओर ही रहता है|जिस मार्ग से सुषुम्ना का उर्ध्व भाग स्पष्ट रूप से दिखाई दे,ऐसी गहरी रेखा प्रत्येक व्यक्ति के ललाट पर होती है|
सुषुम्ना नाड़ी को केन्द्रीभूत मानकर अपने-अपने सम्प्रदायों के अनुसार ललाट पर विविध प्रकार के तिलक धारण किये जाते हैं|चन्दन का लेप सुषुम्ना पर लगाने से आध्यात्म के लिए अनुकूल विशिष्ट प्रक्रिया होती है|नासिका से प्रवाहित होने वाली दो नाड़ियो में से बाईं नाड़ी इडा धन और दाई नाड़ी पिंगला ऋण होती है|धन विद्युत बहते समय उत्पन्न उष्णता को रोकने के लिए सुषुम्ना पर तिलक लगाना बहुत उपयोगी रहता है|