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कहानी वीर भूमि सिंजगुरू की :-

ठा.उदयभानसिंह मेड़तिया(राठौड़)नागौर के गाँव निम्बी से आए थे|वे बीकानेर के महाराजा सरदारसिंह जी की फ़ौज में थे|लड़ाई में बहादुरी दिखाने के एवज में सिंजगुरू का पट्टा व 12 गावों की जागीर बखसीस में मिली थी|लक्ष्मण सिंह,राजासिंह,शक्तिसिंह,पृथ्वीसिंह,कालूसिंह के वंशज रुघनाथसिंह आज भी सिंजगुरू में है|ठाकुर रुघनाथसिंह बताते हैं कि 16 वी.सदी में लूणा के नरदास जी पातावत थे|उनकी जागीर में सिंजगुरू गाँव भी शामिल था|उनकी भुवा जांगलू के भाटी सरदार को ब्याही हुई थी|वे जुझार हुए है|जिनकी देवली सिंजगुरू में स्थापित है|उनके बारे में कहते हैं कि वे एक बार जांगलू गए वहां चौपड़ पासा खेलते हुए हार गए|भाटियों ने कह दिया कि ‘’ये हाथ तो चूड़ियाँ पहनने लायक है’’|यह ताना उन्हें शूल की तरह चुभ गया और उन्हें ललकारा की सिंजगुरू मुकाबले के लिए आना|इस कलह की खबर उनकी भुवाजी को लगी तो वे सिंजगुरू आये उन्होंने विलाप करते हुए नरदास जी को नहीं लड़ने की सलाह देते हुए कहा कि ‘क्या वे अपनी भुआ को विधवा करेंगे?’नरदास जी ने उन्हें नहीं लड़ने का विश्वास दिलाकर जांगलू भेज दिया|जांगलू के भाटी तो नरदास जी का जौहर देखना चाहते थे|भाटियों ने सिंजगुरू गाँव पर चढ़ाई कर दी|नरदास जी के साथ उनका सेवक एक गिलोल से पत्थरों की वर्षा के लिए पत्थर इकट्ठे कर बैठ गया|नरदास ने अपने फूंफा के सामने खड़े होकर कहा-‘पहला वार आप करो|’इस बात पर काफी देर बहश होती रही|बाद में फूंफा ने तलवार के एक ही वार में नरदास जी का सिर धड़ से अलग कर दिया|उधर नायक सैनिक ने पत्थरों की वर्षा शुरू कर दी इसमें कई भाटी सरदार मारे गए|नरदास जी का सिर सिंजगुरू में,गिरा जहाँ आज उनका मंदिर बना है|कहते हैं लड़ते धड़ में हाथों से तलवार चलती रही|वे धड़ सहित अपने गाँव लूणा पहुँच गए|जहाँ उनके धड़ की पूजा होती है|लोक आस्था के प्रतिक नरदास जी मंदिर में लोग अपनी मनोकामना लेकर पहुँचते हैं|

मेड़तिया ठाकुरों के वंशज ठा.रघुनाथसिंह जी ने अपने जीवनकाल में 14 चुनाव लड़े हैं विभिन्न पदों पर रहते हुए तीन बार सरपंच रहे हैं|उनके बड़े पुत्र अक्षयसिंह दो बार सरपंच हुए|

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