वैसे तो दक्षिण शुभ दिशा है,मगर इसके विषय में जनमानस में ग़लतफहमी प्रचारित है|इसका कारण यह है की हर दिशा के लिए एक लोकपाल की नियुक्ति की गयी है|उसके अनुसार दक्षिण दिशा के लोकपाल यम हैं|सामान्य लोगों के मन में डर एंव अज्ञानता के कारण यम के विषय में तिरस्कार तथा घृणा होने से दक्षिण दिशा को त्याज्य समझा जाने लगा|यह घृणा यहाँ तक पहुंची कि यज्ञ प्रक्रिया में दक्षिण दिशा का उल्लेख आने पर उस शब्द को हटाकर ‘अवाची’के पद से उसका उल्लेख किया जाने लगा|
सूक्ष्म रूप से विचार करने पर क्या यम और उनकी दक्षिण दिशा को सचमुच अशुभ या त्याज्य समझना चाहिए,यह बड़ा जटिल प्रश्न है|यदि यम ने अपना कर्तव्य न निभाया होता तो कितना भयंकर अनर्थ होता|इस बात का केवल विचार ही रोंगटे खड़े कर देता है|जिसका शरीर इहलोक के लिए अक्षम हो गया है या जिसका इहलोक का कार्य पूरा हो चूका है;ऐसे जीवों को अपने लोक ले जाने वाला,उनके दोषों का निवारण एंव शुद्धिकरण करने वाला यम भला तिरस्करणीय कैसे हो सकता है?
यम का अर्थ है –नियमन या नियंत्रण|दुनिया की हर छोटी-बड़ी क्रिया के नियमन की आवश्यकता होती है|इसलिए यज्ञ कर्म में,विशेष रूप से शांति कर्म में,यम का उल्लेख आग्रहपूर्वक होता है|एंव उनकी पूजा भी की जाती है|किसी भी कर्म के प्रारंभ में कर्ता का मुह पूर्व की तरफ रहता है तथा उपचारों का प्रारम्भ दक्षिण से करके सांगता उत्तर दिशा में की जाती है|दक्षिण में यमराज और उनका यमलोक होता है|उत्क्रांति का मार्गक्रमण दक्षिण से उत्तर की तरफ होता है और अंत में लय पुनः दक्षिण में ही होता है|
यही नहीं,पृथ्वी के उदर में महाचुम्बक दक्षिणोत्तर ही है|शंकर जैसे अति महान भगवान के पिंड का मुंह दक्षिण की ओर ही होता है|अपने घर का मुंह दक्षिण दिशा की ओर न हो,यह मान्यता जनमानस में व्याप्त है|दक्षिण अति पवित्र दिशा होने के कारण घर में भी उतनी ही पवित्रता रखनी होगी|यज्ञ कर्म में तो दक्षिण दिशा में मार्जन करने पर हाथ धोने की प्रथा है|
शास्त्रानुसार दक्षिण दिशा में पैर करके सोना निषिद्ध माना गया है|इस नियम के आरोग्य शास्त्रीय तथ्य है|विश्व के प्रत्येक अणु-रेणु में एक प्रकार का आकर्षण-प्रत्याकर्षण होता है|हर कण किसी न किसी विशाल कण की ओर आकर्षित होता है|परिणाम स्वरुप हर सूक्ष्म कण की एक भ्रमण गति होती है|पृथ्वी भी सूर्य की तरफ गुरुत्वाकर्षण के कारण आकृष्ट होता है|स्वयं सूर्य भी उससे बड़े सूर्य की तरफ आकर्षित होता है|’ध्रुव’नामक तारे के पास विश्व निरंतर आकर्षित होता है|ध्रुव तारा जिस ओर होगा,उस दिशा में शरीर के अणु-रेणु आदि कणों का आकर्षण होता रहता है|पेट के अन्दर के अन्न पदार्थ भी उसी दिशा से सूक्ष्म रूप से आकर्षित होते है|
इस कारण उत्तर की ओर करके सोने से शरीर के सभी सूक्ष्म तंतुओं का आकर्षण विरुद्ध होने से इसका लाभ शरीर को अपने आप मिलता रहता है|इसके विपरीत दक्षिण दिशा की ओर पैर करके सोने से शरीर के तमाम सूक्ष्म तंतुओं का आकर्षण उलटी दिशा में होता है|इसलिए अन्न पाचन की क्रिया में व्यवधान उत्पन्न होता है|इसके अलावा ज्ञान तंतुओं का उल्टा भ्रमण होने से मस्तक को थकान महसूस होती है|परिणाम स्वरुप निद्रावस्था यथोचित समाधान नहीं दे पाते|इससे निरंतर बुरे स्वप्न दिखाई देते हैं|इसलिए शास्त्र कहता है कि दक्षिण दिशा में पैर करके कदापि नहीं सोना चाहिए|