वे कर्म जिनसे यह शरीर मिला है,उसका सिद्धांत ज्ञात होने पर यह बात साफ़ हो जाती है कि मनुष्य योनी ही नहीं,कर्म योनी भी है|इसका सदुपयोग करके जीव अपने भोग की दिशा अर्थात प्रारब्ध में परिवर्तन कर सकता है|इसे यूं समझा जा सकता है-सामने से छूटे तीर की गति बदलने के लिए दुसरे तीर का प्रयोग करना पड़ता है लेकिन यह कार्य दूसरा व्यक्ति कर सकता है|परन्तु यदि ऐसा न हो सके तो उस स्थान का परिवर्तन करके घात से बचा जा सकता है|यदि ऐसा भी संभव न हो तो ढाल द्वारा या कवच पहनकर घात को कुंठित किया जा सकता है|परिहार का अर्थ दूर होना न होकर उसकी समझ न होना या उसकी कोशिश न करना है|संकट के ज्ञान का अधिष्ठान मन है|अगर वह मन नष्ट हो जाए तो संकट अपने आप दूर हो जाते हैं|मन को अमन करने वाला एकमेव साधन नाम स्मरण है|जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती,उसी प्रकार एक ही समय मन में दो विषय नहीं रह सकते|मन में नाम स्मरण की आदत डाल देने पर भौतिक विषयों तथा संकटों का चिंतन करने के लिए उसके पास समय ही नहीं बचता|तात्पर्य यह है कि संकट प्राप्त होकर भी उसका प्रभाव नहीं रहता|नियति के नियमानुसार अहंकार के क्षीण हो जाने से भौतिक विषयों तथा संकटों के लिए कोई काम ही नहीं बचता|
संकट परिहार के सम्बन्ध में विविध सीढियां होती हैं| ‘’हे भगवान मुझे परीक्षा में उत्तीर्ण करो,मै तुम्हारी पूजा करके प्रसाद चढाऊंगा,’’ऐसी मनौती मांगने वाला विद्यार्थी यदि परीक्षा में उत्तीर्ण होकर भी पूजा नहीं करता तो वह अति नीच तबके का भक्त है|मनौती मांगकर बाद में उसके अनुसार पूजा करने वाला कनिष्ठ श्रेणी का भक्त होता है| ‘’परमात्मा!मुझे उत्तीर्ण कर|मै आज ही तेरी पूजा करता हूँ,’’ऐसा कहकर सचमुच पहले पूजा करने वाला विद्यार्थी मध्यम तबके का भक्त होता है|परमात्मा!मुझे उत्तीर्ण कर या अनुत्तीर्ण किन्तु अनुत्तीर्ण होने पर उसका दुःख सहन करने की शक्ति मुझे दे|मैं उसके प्रीत्यर्थ आज ही से तुम्हारी पूजा करता हूँ,’’ऐसा कहने वाला विद्यार्थी श्रेष्ठ भक्त होता है|लेकिन कुछ न मांगने वाला और निष्काम भावना से सतत नाम स्मरण करते हुए अध्ययन करने वाला विद्यार्थी उच्च कोटि का भक्त होता है|
भगवान के भक्तों की स्थिति नवजात शिशु जैसी होती है|उसके मुंह से स्वर निकलते ही उसकी माँ दौड़कर उसके पास जाती है|कारण-वह उसके पास होती है|उसी तरह निष्काम बुद्धि से सतत नाम स्मरण करते हुए कार्यरत रहने वाले भक्त के शब्दकोश में ‘संकट’ और ‘परिहार’ शब्द नहीं रहते|परमेश्वर हमेशा उसके पास रहने से उसका अहंकार पूर्णतया नष्ट हो जाता है,फिर संकट उसके पास नहीं फटकता|