श्री कोलायत के कपिल सरोवर में ब्राह्मणों ने किया श्रावणी उपाकर्म और श्रवण पूजन
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26th August 2018
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श्रावणी उपाकर्म और श्रवण पूजन
प्राचीन काल में वेद और वैदिक साहित्य का स्वाध्याय होता था। जिस दिन से वेद पारायण का उपक्रम आरम्भ होता था उसे “उपाकर्म” कहते हैं। यह वेदाध्यन श्रावण सुदी पूर्णिमा से प्रारंभ किया जाता था। इसलिए इसे “श्रावणी उपाकर्म” भी कहा जाता है। इसलिए उस समय से श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को श्रावणी पर्व के रुप में मनाया जाता है। इस दिन द्विज श्रेष्ठ अपने पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया यज्ञोपवीत धारण करते है।
ऋगवेदियों एवं यजुर्वेदियों के लिए उपाकर्म के तीन काल निश्चित किये गए हैं श्रावण शुक्ल में श्रवण नक्षत्र, श्रावण शुक्ल पंचमी, और श्रावण शुकलान्तर्गत हस्त नक्षत्र, इसमें श्रवण नक्षत्र उपाकर्म का मुख्य काल है ।
सामान्यतः श्रावणी उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा / रक्षा बंधन के दिन ही करने का विधान है लेकिन किसी कारणवश अगर श्रावण पूर्णिमा ग्रहण या संक्रांति से दूषित हो तो उपाकर्म ग्रहण /संक्रांति दोष रहित श्रावण शुक्ल पंचमी या श्रावण शुक्ल पक्ष में आने वाले हस्त नक्षत्र में करना चाहिए । आचार्य गजानन शास्त्री ने बताया कि –
पारस्कर के गुह्य सुत्र में लिखा है-
“अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “(2/10/2-2)
यह वेदाध्ययन का उपाकर्म श्रावणी पूर्णिमा से प्रारंभ होकर पौष मास की अमावस्या तक साढे चार मास (चौमासा) चलता था। पौष में इस उपाकर्म का उत्सर्जन किया जाता था।
इसी परम्परा में हिन्दू संत एवं जैन मुनि वर्तमान में भी चातुर्मास का आयोजन करते हैं, भ्रमण त्याग कर चार मास एक स्थान पर ही रह कर प्रवचन और उपदेश करते हैं।
मनुस्मृति में लिखा है-
श्रावण्यां पौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि, युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान् विप्रोSर्ध पंचमान्।।
पुष्ये तु छंदस कुर्याद बहिरुत्सर्जनं द्विज:, माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वार्धे प्रथमेSहनि॥
अर्थात श्रावणी और पौष्ठपदी भ्राद्रपद, पौर्णमासी तिथि से प्रारंभ करके ब्राह्मण लगनपूर्वक साढे चार मास तक छन्द वेदों का अध्ययन करे और पौष मास में अथवा माघ शुक्ल प्रतिपदा को इस उपाकर्म का उत्सर्जन करें।
श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय।
प्रायश्चित रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प – गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं।
यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। इस दिन द्विज श्रेष्ठ अपने पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया यज्ञोपवीत धारण करते है और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं । इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है।
उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है।
जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है।
इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है।
भारत में ‘श्रावणी पूर्णिमा’ के दिन प्रतिवर्ष संस्कृत दिवस और “ऋषि पर्व” मनाया जाता है। संस्कृत विश्व की ज्ञात भाषाओं में सबसे पुरानी भाषा है | सन 1969 में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के आदेश से केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर संस्कृत दिवस मनाने का निर्देश जारी किया गया था। तब से संपूर्ण भारत में संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस दिन को इसीलिए चुना गया था कि इसी दिन प्राचीन भारत में शिक्षण सत्र शुरू होता था। इसी दिन वेद पाठ का आरंभ होता था तथा इसी दिन छात्र शास्त्रों के अध्ययन का प्रारंभ किया करते थे। पौष माह की पूर्णिमा से श्रावण माह की पूर्णिमा तक अध्ययन बन्द हो जाता था। प्राचीन काल में फिर से श्रावण पूर्णिमा से पौष पूर्णिमा तक अध्ययन चलता था, इसीलिए इस दिन को संस्कृत दिवस के रूप से मनाया जाता है।
वहीं इस अनुष्ठान में उपस्थित पं.श्याम सुंदर शास्त्री, पं. महावीर शास्त्री, भागवताचार्य राजकुमार शास्त्री, पं. राजेश जोशी, नारायण तिवाड़ी आदि ने उपाकर्म में भाग लेते हुए अपने अपने निम्न विचार रखे।
श्रावणी धार्मिक स्वाध्याय के प्रचार का पर्व है। सद्ज्ञान, बुद्धि, विवेक और धर्म की वृद्धि के लिए इसे निर्मित किया गया, इसलिए इसे ब्रह्मपर्व भी कहते हैं। श्रावणी पर रक्षाबंधन बड़ा ही हृदयग्राही है। श्रावणी वैदिक पर्व है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि इसी दिन से वेद पारायण आरंभ करते थे। इसे ‘उपाकर्म’ कहा जाता था। वेद का अर्थ है-सद्ज्ञान और ऋषि का तात्पर्य है वे आप्त महामानव जिनकी अपार करूणा के फलस्वरूप वह सुलभ-सरल हो सका। सद्ज्ञान का वरण जितना आवश्यक है और जिनसे वह प्राप्त हुआ था, जिनके परिश्रम, त्याग, तप व करूणा से सुगम हो सका, उनके द्रष्टा ऋषि-मनीषियों को भी उतना ही श्रद्धास्पद मानना चाहिए एवं उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए।
सद्कर्म का संकल्प
श्रावणी पर्व पर द्विजत्व के संकल्प का नवीनीकरण किया जाता है। उसके लिए परंपरागत ढंग से तीर्थ अवगाहन, दशस्नान, हेमाद्रि संकल्प एवं तर्पण आदि कर्म किए जाते हैं। श्रावणी के कर्मकाण्ड में पाप-निवारण के लिए हेमाद्रि संकल्प कराया जाता है, जिसमें भविष्य में पातकों, उपपातकों और महापातकों से बचने, परद्रव्य अपहरण न करने, परनिंदा न करने, आहार-विहार का ध्यान रखने, हिंसा न करने , इंद्रियों का संयम करने एवं सदाचरण करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। यह सृष्टि नियंता के संकल्प से उपजी है। हर व्यक्ति अपने लिए एक नई सृष्टि करता है। यह सृष्टि यदि ईश्वरीय योजना के अनुकूल हुई, तब तो कल्याणकारी परिणाम उपजते हैं, अन्यथा अनर्थ का सामना करना पड़ता है। अपनी सृष्टि में चाहने, सोचने तथा करने में कहीं भी विकार आया हो, तो उसे हटाने तथा नई शुरूआत करने के लिए हेमाद्रि संकल्प करते हैं। ऐसी क्रिया और भावना ही कर्मकाण्ड का प्राण है।
ब्रह्मा, वेद एवं ऋषियों का आह्वान
श्रावणी पर्व पर सामान्य देवपूजन के अतिरिक्त विशेष पूजन के अन्तर्गत ब्रह्मा, वेद एवं ऋषियों का आह्वान किया जाता है। ब्रह्मा सृष्टि कर्ता हैं। ब्राह्मीचेतना का वरण करने एवं अनुशासन के पालन करने से ही अभीष्ट की प्राप्ति हो सकती है। उस विधा को अपनाने, जानने एवं अभ्यास में लाने वाले ही श्रेष्ठता के प्रतीक-पर्याय होते हैं। इस पर्व पर ज्ञान के अवतरण की वेदों के रूप में अभ्यर्थना की जाती है। ज्ञान से ही विकास का आरंभ होता है। अज्ञान ही अवनतिका मूल है। अज्ञान से अशान्ति पनपती और अशक्ति अभाव को जन्म देती है। ज्ञान का प्रत्यक्षीकरण करने के लिए वेदपूजन किया जाता है।
ऋषि पूजन का महत्व
ऋषि पूजन के पीछे उच्चतम आदर्श की परिकल्पना निहित है। ऋषि जीवन ने ही महानतम जीवनश्चर्या का विकास और अभ्यास करने में सफलता पाई थी। ऋषि जीवन आंतरिक समृद्धि एवं ऐश्वर्य का प्रतीक है। यह सौम्य जीवन के सुख और मधुरता का पर्याय है। आज के समाज की भटकन का कारण ऋषित्व का घनघोर अभाव है। इस पूजन से इन्हीं तत्त्वों की वृद्धि की कामना की जाती है।
वेदमंत्रो से अभिमंत्रित रक्षासूत्र
रक्षाबंधन का पर्व भी इसी दिन मनाया जाता है। रक्षासूत्रों को ऋषि, मुनि, ब्राह्मण वेदमंत्रो से अभिमंत्रित करते थे। तप और त्याग की शक्ति का मिलन एवं वेदमंत्रों के साथ योग-संयोग अति प्रभावशाली होता है। इस क्रम में श्रेष्ठ आचार्य अपने यजमानों को रक्षासूत्र बाँधते हैं।
प्रकृति से जुड़ाव
रक्षाबन्धन पूज्य श्रद्धास्पद व्यक्तियों अथवा कन्याओं से कराया जाता है। श्रावणी और रक्षाबन्धन की स्मृति को प्रगाढ़ करने के लिए वृक्षारोपण का भी प्रावधान है। वृक्ष परोपकार के प्रतीक हैं, जो बिना कुछ माँगे हमको शीतल छाया, फल और हरियाली प्रदान करते हैं। मानव जीवन के ये करीब के सहयोगी हैं और सदैव हमारी सेवा में तत्पर रहते हैं। अतः हमें भी इनकी सेवा तथा देखभाल करनी चाहिए।
सामूहिक कल्याण की भावना
शास्त्रोक्त मान्यता है कि अनुकूल मौसम में वृक्षारोपण करने पर अनंत गुणा पुण्य लाभ होता है। अतः श्रावणी पर्व से अपने जीवन को सत्पथ पर बढ़ाने, रक्षासूत्र द्वारा नारी के प्रति पवित्रता का भाव रखने तथा वृक्षारोपण द्वारा इन भावनाओं को क्रियाओं में परिणत करने का संकल्प लिया जाता है जो कि इस पर्व का प्राण है। इसे हम सबको पूरा करना चाहिए। इसी में हमारी पर्व परंपरा के साथ-साथ सामूहिक कल्याण निहित है।