महाशिवरात्रि महोत्सव
फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का महोत्सव मनाया जाता हैं| त्रयोदशी को एकबार भोजन करके चतुर्दशी को दिनभर अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए| काले तिल से स्नान करके रात्रि में विधिवत् शिव पूजन करना चाहिए| शिव जी के सबसे प्रिय पुष्पों में मदार, कनेर, बेलपत्र, सबसे प्रमुख हैं| शिव जी पर जल, फल, प्रसाद आदि चढाने से विशेष फल प्राप्त होता हैं|
महाशिवरात्रि महत्व
शिवरात्रि व्रतं नाम , सर्वपाप प्रणाशनम् |
आचांडाल मनुष्याणां भुक्ति मुक्ति प्रदायकम्||
अर्थात् – हिन्दू संस्कृति में महाशिवरात्रि को भगवान शंकर का सबसे पवित्र दिन माना गया है| तथा शिवरात्रि नाम वाला ये व्रत समस्त पापों का शमन करने वाला है| इस दिन पूजन,यज्ञ व व्रत करने से दुष्ट मनुष्य भी सब पापो से मुक्त होकर धन ऐश्वर्य व भक्ति तथा मुक्ति को प्राप्त करता हैं||
महाशिवरात्रि व्रत कथा
प्राचीन काल में, किसी जंगल में एक गुरुद्रुह नाम का एक शिकारी रहता था जो जंगली जानवरों का शिकार से अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। एक बार शिवरात्रि के दिन वह शिकार के लिए निकला लेकिन पूरे दिन उसे कोई शिकार न मिला। उसके बच्चों, पत्नी एवं माता-पिता को भूखा रहना पड़ेगा, इस बात से वह चिंतित हो गया। सूर्यास्त होने पर वह एक जलाशय के समीप गया और वहां एक घाट के किनारे से थोड़ा सा जल पीने के लिए लेकर पास के एक पेड़ पर चढ़ गया। उसे पूरी उम्मीद थी कि कोई न कोई जानवर अपनी प्यास बुझाने के लिए यहां जरूर आएगा। संयोगवश वह पेड़ बेल-पत्र का था और उसी पेड़ के नीचे शिवलिंग भी था जो सूखे बेलपत्रों से ढके होने के कारण दिखाई नहीं दे रहा था।
रात का पहला प्रहर बीतने से पहले एक हिरणी वहां पानी पीने के लिए आई। उस पर निशाना साधने के दौरान उसके हाथ के धक्के से कुछ पत्ते एवं जल की कुछ बूंदें नीचे बने शिवलिंग पर गिरीं और अनजाने में ही शिकारी की पहले प्रहर की पूजा हो गई। हिरणी ने जब पत्तों की खड़खड़ाहट सुनी, तो घबरा कर ऊपर की ओर देखा और भयभीत हो कर शिकारी से बोली- मुझे मत मारो। शिकारी ने कहा कि परिवार की भूख मिटाने की वजह से वह उसे नहीं छोड़ सकता। हिरणी ने वादा किया कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आएगी। शिकारी के शक करने पर उसने फिर से शिकारी को यह कहते हुए अपनी बात का भरोसा करवाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है, समुद्र मर्यादा में रहता है और झरनों से जल-धाराएं गिरा करती हैं, वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है। क्रूर होने के बावजूद शिकारी को उस पर दया आ गई और उसने उस हिरनी को जाने दिया।
थोड़ी ही देर बाद एक और हिरनी वहां पानी पीने आई। इस बार भी शिकारी जैसे ही तीर साधने लगा, वैसे ही उसके हाथ के धक्के से फिर जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे। इस तरह शिकारी से दूसरे प्रहर की पूजा भी हो गई। इस हिरनी ने भी भयभीत हो कर, शिकारी से जीवनदान की याचना की लेकिन उसके अस्वीकार कर देने पर ,हिरनी ने उसे लौट आने का वचन दिया। साथ ही कहा कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाया करता है। उस शिकारी ने पहले की तरह, इस हिरनी के वचन का भी भरोसा कर उसे जाने दिया।
कुछ देर बात एक और हिरण वहां आया। और अब फिर धनुष पर बाण चढ़ाने से पहले की तरह शिकारी से तीसरे प्रहर की पूजा भी संपन्न हो गई। हालांकि इस हिरण ने भी अपने बच्चों को उनकी माता को सौंपकर लौटने की बात कही। हिरण ने कहा – मैं धन्य हूं कि मेरा यह शरीर किसी के काम आएगा, परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जाएगा। लेकिन कृपया कर अभी मुझे जाने दो ताकि मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंप कर और उन सबको धीरज बंधा कर यहां लौट आऊं। हिरण ने शिकारी को वचन दिया – यदि वह लौटकर न आए तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता।
इसी दौरान रात्रि का अंतिम प्रहर शुरू हो गया और तभी शिकरी ने देखा कि सभी अपने परिवार सहित आ रहे हैं। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा और पहले की ही तरह उसकी चौथे प्रहर की भी शिव-पूजा संपन्न हो गई | अब उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये इसलिए वह सोचने लगा- ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन पर जो मैं अनेक प्रकार के कुकृत्यों से अपने परिवार का पालन करता रहा।
अब उसने अपना बाण रोक लिया तथा मृगों से कहा कि वे सब वापस जा सकते हैं। उसके ऐसा करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन करवाया और उसे सुख-समृद्धि का वरदान देकर गुह नाम प्रदान किया। रामायण काल में इसी गुह के साथ भगवान श्री राम ने मित्रता की थी।